पेंसिल को लिखने अथवा चित्र बनाने के प्रयोग में लिया जाता है। पेंसिल शब्द को लैटिन शब्द “पेनिसिलस”से लिया गया है। जिसकी अर्थ “छोटी पूछ” होती है। यह कागज पर चलकर अपनी लिखावट की एक छाप छोड़ जाती है। यह छाप इसके अंदर इस्तेमाल होने वाली ग्रेफाइट की है। यह ग्रेफाइट दो लकड़ियों के बीच दबी होती है और अपना काम बखूबी निभाती चली जाती है।अगर देखा जाए तो पेंसिल एक छोटे से बच्चे का बड़ा सा आसमान है और इस आसमान में वह कुछ भी लिख सकते हैं, कोई भी चित्र बना सकते है तथा रंग – बिरंगे पेंसिल कि मदद से वह अपने सपनों में रंग भी भर सकते है।पेंसिल सबके जीवन की एक बहुमल्य चीज थी और अभी भी है।
पेंसिल कब और किसने आविष्कार किया
16 वी सदी में ग्रेफाइट को बकरियों को गिनने के लिए उन पर लगाया जाता था। कई जगहों पर तो इसे कागज पर रखकर बेचा जाता था।नरम होने के कारण ग्रेफाइट से लिखना मुश्किल था इसलिए कई जगहों पर इसे धागों से बांधकर लिखते थे।
1560 में जेनिफर नामक एक पेड़ के अंदर ग्रेफाइट को सटीक से डालकर लिखना शुरू हुआ। इसके बाद 1660 में दो लकड़ी के बीच में ग्रेफाइट को चिपका दिया जाता था और फिर लोग उससे लिखते थे।
आखिरकार 1765 में एम. जे. कोंते ने ग्रेफाइट और मिट्टी मिलाकर उसकी सलाइया बनाई और इन सलाइयों को वह भट्टी में जलाकर दो लकड़ियों के बीच चिपका दिया करते थे। इस पेंसिल से लिखना काफी आसान साबित हुआ। आज भी पेंसिल बनाने की विधि यही है।
पेंसिल के बारे में यह भी जाने
आज दुनिया भर में पेंसिल के 35 से अधिक और 62 से ज्यादा रंग उपलब्ध हैं। एक पेंसिल से तकरीबन 45000 शब्द लिखे जा सकते हैं तथा 35 मील तक लंबी लकीर खींची जा सकती है। अब तो कंचो, कपड़ों, प्लास्टिक पर लिखने वाली पेंसिल भी बनाई जा चुकी है। तथा ऐसे पेंसिल भी उपलब्ध हैं जिनकी लिखावट सालों साल धुंधली नहीं होगी तथा अब पेंसिल के साथ-साथ मिटाने के लिए रब्बर भी उसके पीछे उपलब्ध है। कई अन्य प्रकार के रंग-बिरंगे पेंसिल तथा डिजाइंस भी उपलब्ध है। यह एक बहुत ही खास चीज थी और दिन प्रतिदिन इसे और भी खास बनाया जा रहा है।